क्योंकि, लेखक वाली मुझमे बात नही !!!! न ही कोई नज़्म है, न मजमून, न कविता , न ही कोई कहानी है।।। बस चंद ज़ज़्बात हैं बेतरतीब से। बेबहर, बेसबर क्योंकि कागज़-कलम भी ढंग से पकड़ना आता नहीं मुझे!!!! लेखक कहलाऊँ ऐसा कुछ भी लिखना अब तलक आता नहीं मुझे!!! ............ संझा की बेला और हर रोज़ की तरह आज भी सूनी पड़ी अटारी। करीने से किनारे पर सजे हरसिंगार के पुष्प जो बिख़र रहे हैं कुछ-कुछ धरा पर निष्फ़िक्र से और मंद बयार संग झूमती तरु डाली । पंखों को पसार खुले आसमान में गोता लगाते हुए घरौंदों को लौटते हुए नन्हें परिंदे। और, वो जंग लगी रिक्त सी कोने में दबी आराम कुर्सी.. जिसके हत्थे पर मेरी हंसी गूंजती थी।। जब झल्ला कर मेरे हाथों से मुड़े कोरे पन्नों को छीनकर तुम कहते थे चुहलबाज़ी में कि.. "ये तुम्हारे बस का नहीं है!" हाँ सचमुच!! बड़े दिनों बाद आई हूँ आज़ इनसे मिलने लाल शर्मीले लजाते गगन को जी भर तकने। अकेले आना तो थोड़ा मुश्किल ही था इसलिए साथ लिए हूँ चाय की पुरानी प्याली। जिससे उठती गर्माहट मानो इन सर्द हवाओं संग घुल-मिल कर प्रकृति का संतुलन बनाये रखने को आतुर ह...