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"मौन"
किंचित कई बार मौन ही सर्वोत्तम कुंजी होती है आत्म बोध के पटल पर पड़े ताले को खोलने की!!
वैचारिक मंथन तथ्यों के साग़र से सही और गलत को पृथक करता है!!
इसलिये ही कदाचित मौन भी समय-समय पर आवश्यक है और कदाचित "मौन" शाश्वत भी है!!
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हुंकार करता सिंह सी,
विस्तार गज सा लांघता।
सीमाओं में जो न बंध सके,
ख़ग सा आकाश नापता।
परिस्थितियों की विवेचना,
बुझ बुझ के जलती चेतना,
मन नहीं धीर धरना जानता।।
कि "मौन आत्म मंथन मांगता"!!
........
आभूषणों से सज्ज हो,
स्वार्थ साध बैठा वज्र हो।
भूल से भी लांघे रेखा कोई,
आक्षेप है बना निर्लज्ज वो।
रस्मों के होम में दहकता,
प्रेम क्षुधा में शीघ्र बहकता,
तन नहीं मोह तजना जानता।।
कि "मौन आत्म मंथन मांगता"!!
.........
जो कल्पनाओं संग बहे,
सोच की कंदराओं में रहे।
भावों की गागर में उतर,
तर्कों के समागम में पके।
नगण्य सा कोई खंड हो,
या अत्यंत वृहद सा ग्रंथ हो,
मस्तिष्क विचार खंगालता।।
कि "मौन आत्म मंथन मांगता"!!
.........
ठोकर न जब डिगा सके,
अवरोध भी नहीं भटका सके।
इंद्रियों का मोह पार करके तू,
लक्ष्य सुगम साध्य बना सके।
चोटिल आस का अब शोक तज,
श्वांस में एक नया विश्वास भर,
मनुज अवसर यहाँ तलाशता।।
कि "मौन आत्म मंथन मांगता"!!
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