Uljhan❤

उलझन

चंद ढीले से खुलते हुए
ख़ुद में ज़रा उलझे हुए
रिश्तों की रस्सियां हैं ये
जिन्हें तुम छेड़ रहे हो।

कच्ची पगडंडी यौवन की
उमड़ी सी घटा जोबन की
इनके बीच सूखी आँखों में
क्यों नमी टटोल रहे हो।

एक ताला मेरी ख़्वाहिश पर
चढ़ा झूठी आज़माइश पर
प्रीत की चाभी लेकर तुम
बंधन सब ख़ोल रहे हो।

कहने को कुछ ख़ास नहीं
सब दिन जैसा है आज़ नहीं
तुम बातों बातों में मुझको
अपना फ़िर क्यों बोल रहे हो।

कितनी गिरहें खोल रहे हो?
ख़ामोशी में भी बोल रहे हो।
ऊंची दीवारों सी रस्मों बिना ही
मुझे नेह नयन से तौल रहे हो।

चंद ढीले से खुलते हुए
ख़ुद में ज़रा उलझे हुए
रिश्तों की रस्सियां हैं ये
जिन्हें तुम छेड़ रहे हो।
•✍✍✍
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