Ghazal✍
रिश्तों का भरम टूटा बाक़ी न कुछ बतलाने के वास्ते।
फ़िर भी उलझती हूँ तुमसे ख़ुद को सुलझाने के वास्ते।
हाथ अंगीठी में नहीं डाला बेवज़ह झुलसाने के वास्ते।
राख़ में दबाकर चिंगारी छिपा ऱखी सुलगाने के वास्ते।
ताज़ा ज़ख्मों को कुरेदती हूँ ज़िगर सुबकाने के वास्ते।
किस्सा ख़त्म किया फ़िर एक बार दोहराने के वास्ते।
काटों की चुभन पायी हमने गुल महकाने के वास्ते।
उन्हें डाल पर ही छोड़ती हूँ हँसकर मुरझाने के वास्ते।
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