यूं खिरद में आकार सिमट गए

यूं खिरद में आकार सिमट गए
मेरे आखर तेरी सोच से लिपट गए ,
कहलाया वो भी काव्य सृजन
कोरे कागज़ पर जो बिखर गए ।।।।।।

आहिस्ता से मुझको भान हुआ
कितने ही मौसम गुज़र गए ,
वो रंग पलाशों के बिसरे
सांवली शामों वाले बज़्म गए ।।।।।।

इक वक्त था जब कौड़ी कंकड़ की
खनक में भी माधुर्य सा था ,
इक वक्त आज है जबकि हम
मोहरों के जाल में उलझ गए ।।।।।।

धुंधला छाया अरु दिवस गए
दुनियादारी में हम बदल गए ,
देखा उस रज को परे हटा
अनंतर तेरे रंग में संवर गए ।।।।।

हर हरफ़ से निकले भाव वही
फिर कई मिसरे गुमनाम हुए ,
कहलाया वो भी काव्य सृजन
कोरे कागज़ पर जो बिखर गए ।।।।।

यूं खिरद में आकार सिमट गए
मेरे आखर तेरी सोच से लिपट गए ,
कहलाया वो भी काव्य सृजन
कोरे कागज़ पर जो बिखर गए ।।।।।।

●●●●●●●" #मुक्त #ईहा "
1. खिरद - दिमाग
2. बज़्म - सभा/गोष्ठी
3. मिसरे - कविता में आधारभूत पहला चरण


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